बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास-II बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास-IIसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास-II - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- बहसोली शैली के लघु चित्रों के विषय में आप क्या जानते हैं?
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. बहसोली शैली कहाँ पनपी ?
2. बहसोली शैली के लघु चित्रों के मुख्य विषय क्या थे?
उत्तर -
आदिकाल से अब तक कला अपने विभिन्न रूपों को प्रकट करती आई है जिसमें लघु चित्रण परम्परा का सम्पूर्ण विश्व में अलग स्थान है। इस सन्दर्भ में भारतीय लघु चित्र शैली के अतुलनीय प्राचीन चित्रों का वर्णन उल्लेखनीय है। लघु चित्र बड़ी तीव्रता से 15वी से 19वीं शताब्दी में भारत में बने। प्रारम्भ में लघु चित्रों का चित्रण ताड़पत्र भोजपत्र तथा बसली तैयार करके किया जाता था। 14वीं शताब्दी में कागज का प्रचलन होने से लघु चित्रों को कागज पर भी बनाया गया और साथ ही साथ लघु चित्रों का अंकन कपड़े पर भी किया जाने लगा। भारत में लघु चित्रण की विभिन्न शैलियाँ विकसित हुईं, जिनमें मुगल शैली, राजस्थानी शैली, पहाड़ी शैली तथा दक्षिणी शैली प्रमुख है।
पहाड़ी शैली 17वीं शताब्दी के आरम्भ में पंजाब और हिमाचल की सुरम्य घाटियों में पनपी । जिसमें इस शैली के उन्नत चित्र प्राप्त हुये थे । इन चित्रों में पहाड़ों का आत्मिक सौन्दर्य, वैभव और यौवन मुखरित था। 17वीं शती में चित्रकला के प्रति सम्राट औरंगजेब की उदासीनता और कट्टरता के कारण कलाकार आश्रय की खोज में पंजाब और जम्मू की पहाडियों के ठाकुर राजाओं की शरण में जा बसे और यहीं चित्र निर्मित किये। यह चित्र शैली पहाड़ी कलम के नाम जानी गई। पहाड़ी शैली की अनेक उपशैलियाँ भी विकसित हुई, जिनमें कांगड़ा, बसोहली, गुलेर, चम्बा, गढ़वाल आदि।
बसोहली रावी नदी की घाटी में स्थित एक छोटी सी नगरी है। बसोहली राज्य की स्थापना भोगपाल ने 1765 ई० में की थी और बसोहली चित्र परम्परा का आरम्भ राजा कृष्णपाल के काल में हुआ था इसका सर्वोत्तम विकास राजा कृपाल पाल के शासन में हुआ । इन्होंने बसोहली कलम के विकास में तन-मन-धन से कार्य किया। इनके समय में भानुदत्त कृत एक सचित्र प्रति रसमजरी (1694-95 ई०) तैयार की गई। भारत कला देवीदास ने कृपालपाल के लिये किया था। इसके पश्चात राजा मेदनी पाल (1725-1736) व जित पाल (1736-57) ने प चित्र परम्परा को और अधिक पुष्ट किया।
प्राचीन काल से भारतीय लघु चित्र परम्परा साहित्य के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी थी। जिसके फलस्वरूप रागमाला, बारहमासा, गीत गोविन्द, रसिक प्रिया, कवि प्रिया इत्यादि कोव्यों पर आधारित चित्र श्रृंखलाएँ निर्मित की गयी जो अपनी भाव योजना हेतु विश्व में प्रसिद्ध हुई । कलाकारों ने साहित्य में वर्णित अलौकिक अमूर्त भावनाओं को अपनी कार्य कुशलता और दक्षता से मूर्त रूप देकर दर्शकों को भाव-विभोर कर दिया था। रसमंजरी एक महान शास्त्रीय संस्कृत भाषा में लिखित महाकाव्य के रूप में वर्णित है। रसमंजरी 15वीं शती के महत्वूर्ण- अभिलेखों में से है जिसके माध्यम से हमें तत्कालीन उच्च वर्ग के सामाजिक जीवन की झॉकी मिलती है। संस्कृत कवि भानुदत्त ने प्रेम की सूक्ष्म, उद्वेलित कोमल व दिव्य भावनाओं को प्राकृतिक के प्रभाव के साथ वर्णित किया है। इसमें नायक एवं नायिकाओं को कृष्ण और राधा के सक्षम मानते हुये उनके पारलौकिक प्रेम का वर्णन है। चित्रकारों ने नायक और नायिकाओ को राधा-कृष्ण के रूप में इसलियें चित्रित किया है क्योंकि यह आदर्श प्रेम व प्रेमिका का निर्वाह उन्हीं के द्वारा सम्भव मानते हैं। इस ग्रन्थ में शृंगार के दोनों पक्षों संयोग और वियोग रस की प्रधानता है तथा प्रकृति का सुरम्य, मनमोहक व अकल्पनीय वर्णन किया गया है।
इन रसमंजरी लघु चित्रों का संग्रह भारत एवं विदेशों में कई स्थानों पर संग्रहीत है, जिनमें डोगरा आर्ट गैलरी जम्मू, द म्यूजियम ऑफ फाइन आर्टस बोसटन, द विक्टोरिया एण्ड अल्बर्ट म्यूजियम लन्दन, व सेन्ट्रल म्यूजियम लाहौर, द चण्डीगढ़ म्यूजियम इत्यादि संग्रहालयों में रसमंजरी लघु चित्रों की शृंखला प्राप्त होती है।
लघु चित्रण शैली की यह प्राचीन परम्परा रही है कि वह काव्य के साथ सदैव जुडी रही । पहाड़ी शैली के लघु चित्र अपनी स्थानीय विशेषताओं के कारण अपने बाह्य स्वरूप में काव्यगत विशेषताओं को प्रकट करते हैं। काव्य की सूक्ष्म कल्पनाओं को कलाकार सदैव अपने अन्तर्गत की भावनाओं के साथ प्रस्तुत करते हैं। इन चित्रों में तत्कालीन जीवन के साथ-साथ कलाकार की व्यक्तिगत भावनाएँ उसकी दक्षता भी निहित होती है।
बसोहली शैली में निर्मित रसमंजरी का चित्रण भी इसी आधार पर किया गया।
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